परोपकारः पुण्याय पापाय परपीड़नम्!
अभी कुछ ही दिन पहले ईद गई..फेसबुक और कई अन्य सोशल मीडिया प्लेटफोर्म्स पर मैंने त्योहार विशेषों पर पशु पक्षियों के साथ होने वाली हिंसा से संबंधित कई पोस्ट्स देखीं (जिसमें बकरीद और मकर संक्रान्ति/पतंगोत्सव वाली पोस्ट्स विशेष रूप से देखी)! जिनपर दोनों और के चिंटुओं की कमेंट्स भी पढ़ने योग्य थी...!तो भियालोग पहली बात तो गई ईद मीठी ईद थी..और पतंगबाजी में अबी सात महीने हैं तो क्यूं कड़वाहट घोल रेले हो?खैर... जानवरों/पक्षिओं के साथ होने वाली बर्बरता(भले वह धर्म से प्रेरित हो या धंधे से)के ख़िलाफ़ आवाज़ उठना ही चाहिए... पर मेरा यह लेख लिखने का कारण विशेष यह है कि त्यौहार के मूल स्वरूप में परिवर्तन करके उसपर कुतर्क करना कहां तक सही है? मैं ना तो कोई विद्वान पंडित हूं ना कोई महान विचारक...इसलिए मेरे इस लेख को एक पोस्ट समझकर पढ़ें और पढ़ने के बाद अपने स्व-विवेक से निर्णय लें!और एक बात पोस्ट समय निकालकर पूरी ही पढ़ें आधी पढ़ना या तो आपके या मेरे स्वास्थ के लिए हानिकारक होगा!😁 मानव द्वारा जानवरों पर अत्याचार कोई आज की बात नहीं...यह मानवता के विकास(अब विकार) का एक पायदान था।मानव तब पशु से कुछ भिन्न...