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मेरे प्रिय आत्मन!

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 मेरे प्रिय आत्मन,  नहीं नहीं, मैं तुम्हे संबोधित नहीं कर रहा। मैं तो उस मधुर शब्द त्रिवेणी की पुनः आवृत्ति कर रहा जो एक अरसे से अपनी निश्चल स्वर भंगिमाओं से कार्णिकाओं को तृप्त करते आई हैं।  वैसे तो बचपन से ही आपकी कैसेट्स और किताबों को घर में सम्मान पाते देखा,पर असली परिचय उन किताबों को पढ़कर हुआ। या सच कहूं तो मेरा किताबों से असली परिचय ही उनको पढ़कर हुआ। ऐसे चीर जीवंत व्यंग्य पटु संवाद पढ़कर पढ़ने जैसा नहीं,बल्कि सुनने जैसा लगा।  मैंने शंकर,महावीर और प्लेटो को ज़्यादा नहीं पढ़ा, बुद्ध,चार्वाक और गीता की परंपरा,अरस्तू, सुकरात,सार्त्र और हाईडेगर से भी लगभग अछूता रहा।पर इन सब से अनभिज्ञ नहीं रहा...मैंने तुम्हे पढ़ा।  जैन परंपरा की गूढ़ ज्ञानावली हो या क्राइस्ट के प्रेम प्लावित संदेश,कामसूत्र की लिप्सा मीमांसा हो या उस से बढ़कर अध्यात्म की अनंत उत्कंठाओं को जन्म देने वाली साध्या योग की भेद निरूपित व्याख्यावली,तंत्र के गोपनीय तथ्य फिर कभी मूल्ला नसीरुद्दीन तो कभी लल्लू के पट्ठे के मजाकिया किस्से,  या अनहद की मस्ती में खो जाने वाली सुंदरेतर अनुभव व्याख्यान,इन सब को पढ़ा।  कोई