समीक्षा प्रयास: असुर वेबसीरीज

हाल ही में असुर वेब सीरीज देखी,मिली-जुली प्रतिक्रियाओं को देखकर ये समीक्षा लिखने का मन हुआ।ध्यान में रखने वाली बात है कि यह मेरी पहली समीक्षा(वेब सीरीज)है।इसलिए इसे ‘पिंच ऑफ सॉल्ट’ की तरह स्वीकारें।
तो बात शुरू करते हैं वेब सीरिज की।
ओनी सेन निर्देशित क्राइम थ्रिलर–असुर के अबतक २ सीज़न आ चुके हैं।पूरी कहानी अच्छाई और बुराई के द्वंद्व को उजागर करती है।
मूलचरित्र का नाम ‘शुभ जोशी’ है जो अपने बचपन के बैकग्राउंड के प्रभाव से इस बात को मान चुका है कि वह असुर "कली" का रूप है।
पुरोहित परिवार में जन्मा शुभ शास्त्रों और पुराणों को पढ़कर ज्ञानी तो हो जाता है, पर नैतिकता के संबंध में उसके विचार पुराणों से मेल नहीं खाते जिसके फलस्वरूप सारा रायता फैलता है।
शुभ असुरों को वंचित मानता है और देवों को शोषक।उसे नैतिकता पर ज़रा भी भरोसा नही है।
सीरीज के मुख्य चरित्र की यह प्रवृत्ति दर्शक को नया नजरिया देती है,असुरों के प्रति मन में सहानुभूति का भाव उठने लगता है।पर आखरी तक कथानक रेखीय नहीं रहता और मोड़ देखने को मिलते हैं।कल्कि अवतार का जिक्र इसमें महत्वपूर्ण है जो चरम कलियुग के बाद होगा।कलियुग को इंटेंसिफाई करने के लिए वह खुराफाती रास्ता अपनाता है। 
“जो भी व्यक्ति नैतिकता पर चलेगा, उसे ऐसे ही मृत्यु के मार्ग की ओर प्रस्थान करना पड़ेगा”

इसी बीच शुभ के बचपन से जुड़ी कहानी भी आती है जहां  पिता की हत्या के आरोप में एक सीबीआई अधिकारी धनंजय राजपूत उसे जेल भेजता है।
"हमारा पास्ट हमारी परछाई की तरह होता है , हम चाहकर भी उससे अपना पीछा छुड़ा नहीं सकते है”
“PAST अक्सर FUTURE का पता क्लियरली बता देता है”
यही घटनाएं पूरी सीरीज को दिशा देती हैं।डोमिनो इफेक्ट में पूरी स्टोरी सही गलत के बीच झूलती रहती है।
सीरिज की शुरुआत में ब्लैक एंड व्हाइट का कंट्रास्ट क्लाइमैक्स तक आते-आते ग्रे में तब्दील हो जाता है।और नैतिकता का ऑब्जेक्टिव निर्धारण मुश्किल हो जाता है। शुभ के शब्दों में– "कुछ भी नैतिक नहीं होता।"

स्वभाव से असुर की तुलना मैच्योर जासूसी रचनाओं से की जा सकती है।हालांकि इसमें हल्की कल्पनाओं से परहेज किया गया पर अधिकांश जगहों पर इंस्टिंक्ट के बलबूते सीबीआई अधिकारी हत्या का पर्दाफाश कर हेरोइज्म का परिचय देते रहते हैं।

डायलॉग के मामले में भी असुर ठीक ही रही।एक तरफ "आउटडेटेड" सीबीआई से असुर जिन टेक्निकल अस्त्रों द्वारा लड़ता है उनकी बात निराली है।आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, डीप वेब,डार्क वेब,मशीन लर्निंग, ब्लॉकचैन,डाटा माइनिंग,डाटा प्राइवेसी, बैंडविथ ऐसे कई शब्दों की भरमार भारीपन बढ़ाती है। तो दूसरी ओर शुभ जैसे किरदार शुद्ध संस्कृतनुमा हिंदी में बोलते हैं।बाकी भाषा आम है।

दोनों सीजंस को मिलाकर लगभग पंद्रह घंटे की सीरीज में पात्र भी अच्छी खासी संख्या में आते हैं। अनुपातिक महत्व ठीक होने पर भी उन्हें याद रख पाना मुश्किल होता है।
स्वाभाविक पात्र इसे ज्यादा रियलिस्टिक बनाते हैं।शुरुआत के नैतिक पात्र जैसे निखिल आखरी तक आते आते नैतिकता के रास्ते पर डगमगा जाते हैं और यही बात इस सीरीज का मैसेज है, और शुभ का उद्देश्य भी–
"बुराई ही धर्म है लगाव ही पीड़ा है करुणा ही क्रूरता है और अंत ही आरंभ है।"

क्राइम थ्रिलर होने के साथ ही सीरीज कई समसामयिक विषयों पर भी ध्यान खींचती है जो मनोरंजन से ज़्यादा महत्वपूर्ण है–
माइथोलॉजी और ज्योतिष पर अंधा विश्वास,पहले शुभ के पिता फिर शुभ के माध्यम से;
अंध श्रद्धा का उपयोग,मनुष्य का इश्वरीकरण–अनंत के माध्यम से;
सोशल मीडिया का पावर,और कॉरपोरेट द्वारा मिसयूज;
लिंगभेद–सीबीआई ऑफिसर नुसरत के कॉन्टेक्स्ट में;
सबसे ज़रूरी –एडवांस्ड टेक्नोलॉजी से आने वाले खतरे,बिहेवियरल एनालिसिस जैसे पावर,प्राइवेट डाटा का दुरुपयोग;
और एक तरह से इंस्टीट्यूशनल फ्रेमवर्क के फेल्योर की ओर भी!

एक अर्थ में देखें तो यह वेब सीरीज कुछ सालों पहले आई ‘दी सैक्रेड गेम्स’ को मुकम्मल अंत तक भी पंहुचाती है।कई मामलों में उससे मेल खाते हुए भी ‘असुर' की सफलता के पीछे का एक कारण इसकी ‘हैप्पी एंडिंग’ है जो भारतीय दिल को ठंडक देने के लिए जरूरी थी।
हालांकि ‘वृंदा श्रीवास्तव’ के माध्यम से एंड में धुंधलाहट घोल दी गई है,अंत इतना साफ भी नहीं है,और संभव है वह अंत भी नहीं है,क्योंकि–

"अंतः अस्ति प्रारम्भः"


©पलकेश सोनी

Pc:Google
Dialogue: Asur 1&2

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