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समीक्षा प्रयास: असुर वेबसीरीज

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हाल ही में असुर वेब सीरीज देखी,मिली-जुली प्रतिक्रियाओं को देखकर ये समीक्षा लिखने का मन हुआ।ध्यान में रखने वाली बात है कि यह मेरी पहली समीक्षा(वेब सीरीज)है।इसलिए इसे ‘पिंच ऑफ सॉल्ट’ की तरह स्वीकारें। तो बात शुरू करते हैं वेब सीरिज की। ओनी सेन निर्देशित क्राइम थ्रिलर–असुर के अबतक २ सीज़न आ चुके हैं।पूरी कहानी अच्छाई और बुराई के द्वंद्व को उजागर करती है। मूलचरित्र का नाम ‘शुभ जोशी’ है जो अपने बचपन के बैकग्राउंड के प्रभाव से इस बात को मान चुका है कि वह असुर "कली" का रूप है। पुरोहित परिवार में जन्मा शुभ शास्त्रों और पुराणों को पढ़कर ज्ञानी तो हो जाता है, पर नैतिकता के संबंध में उसके विचार पुराणों से मेल नहीं खाते जिसके फलस्वरूप सारा रायता फैलता है। शुभ असुरों को वंचित मानता है और देवों को शोषक।उसे नैतिकता पर ज़रा भी भरोसा नही है। सीरीज के मुख्य चरित्र की यह प्रवृत्ति दर्शक को नया नजरिया देती है,असुरों के प्रति मन में सहानुभूति का भाव उठने लगता है।पर आखरी तक कथानक रेखीय नहीं रहता और मोड़ देखने को मिलते हैं। कल्कि अवतार का जिक्र इसमें महत्वपूर्ण है जो चरम कलियुग के बाद होगा।कलिय

कुकुरमुत्ता memes 'डिसाईफर' करने के लिए संदर्भ लेख!😂

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बकौल कुछ समीक्षक ‘कुकुरमुत्ता’ कविता नहीं,बल्कि- "सांप झाड़ने का मंत्र है!" क्या कारण है कि निराला जैसे महान कवि की रचना को ऐसा कहा गया?इसे पहली बार पढ़ने पर पर्याप्त संभावना रहती है कि सामान्य व्यक्ति को समझ न आए!दरअसल यह कविता प्रयोगधर्मिता को अगले स्तर पर ले जाती है। दो हिस्सों में लिखी यह कविता घूमती है नव्वाब के बगीचे के इर्द गिर्द।इसका मुख्य पात्र है "कुकुरमुत्ता",जो शुरुआत में प्रगतिवादी चेतना से प्रभावित मालूम पड़ता है (प्रगतिवाद मार्क्सवाद का साहित्यिक संस्करण है)।एक समय तक समीक्षक भी इस बात को मानकर चलते रहे कि कुकुरमुत्ता पूंजीवाद पर तंज है।पर ऐसा नहीं है,उन्हें इसका मर्म जानने में दूसरा भाग समझने जितनी देर लगी। शुरुआती पंक्तियों में बाग़ में लगे पौधों-फूलों का लंबा परिचय आता है।इसी बीच बाग़ के कीचड़ में खिला कुकुरमुत्ता ‘बुत्ता’ देकर एंट्री लेता है। सर्वहारा वर्ग का स्वघोषित प्रतिनिधि कुकुरमुत्ता ‘कैपिटलिस्ट गुलाब’ को कोंसना शुरू करता है-         अबे!सुन बे गुलाब,         भूल मत पाई जो खुश्बू रंगो-आब,         खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट         डाल पर इत

मेरे प्रिय आत्मन!

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 मेरे प्रिय आत्मन,  नहीं नहीं, मैं तुम्हे संबोधित नहीं कर रहा। मैं तो उस मधुर शब्द त्रिवेणी की पुनः आवृत्ति कर रहा जो एक अरसे से अपनी निश्चल स्वर भंगिमाओं से कार्णिकाओं को तृप्त करते आई हैं।  वैसे तो बचपन से ही आपकी कैसेट्स और किताबों को घर में सम्मान पाते देखा,पर असली परिचय उन किताबों को पढ़कर हुआ। या सच कहूं तो मेरा किताबों से असली परिचय ही उनको पढ़कर हुआ। ऐसे चीर जीवंत व्यंग्य पटु संवाद पढ़कर पढ़ने जैसा नहीं,बल्कि सुनने जैसा लगा।  मैंने शंकर,महावीर और प्लेटो को ज़्यादा नहीं पढ़ा, बुद्ध,चार्वाक और गीता की परंपरा,अरस्तू, सुकरात,सार्त्र और हाईडेगर से भी लगभग अछूता रहा।पर इन सब से अनभिज्ञ नहीं रहा...मैंने तुम्हे पढ़ा।  जैन परंपरा की गूढ़ ज्ञानावली हो या क्राइस्ट के प्रेम प्लावित संदेश,कामसूत्र की लिप्सा मीमांसा हो या उस से बढ़कर अध्यात्म की अनंत उत्कंठाओं को जन्म देने वाली साध्या योग की भेद निरूपित व्याख्यावली,तंत्र के गोपनीय तथ्य फिर कभी मूल्ला नसीरुद्दीन तो कभी लल्लू के पट्ठे के मजाकिया किस्से,  या अनहद की मस्ती में खो जाने वाली सुंदरेतर अनुभव व्याख्यान,इन सब को पढ़ा।  कोई

Indian mythology: ऋषि

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ऋषि सनातन धर्म की ग्रंथ परंपरा आदिकाल से दो सिद्धांतों पर चल रही है: श्रुति तथा स्मृति। श्रुति मतलब सुनना,जिस परंपरा में ग्रंथो को सुनकर आगे बढ़ाया गया हो जैसे गुरु शिष्य द्वारा(उदा.पुराण उपनिषद)और स्मृति मतलब स्वयं के द्वारा अर्जित ज्ञान से स्मरण से लिखे ग्रंथ- ध्यान आदि माध्यम से(उदा. मनु स्मृति ,याज्ञवल्क्य स्मृति)आदि। दोनों परंपराओं ने हमारी शास्त्र संपदा को परिष्कृत किया। भारतीय  श्रुति परंपरा के शास्त्रों को लिपिबद्ध करने वाले व्यक्ति विशेष को कहा गया "ऋषि"।सामान्यत: वेदों की ऋचाओं का साक्षात्कार करने वाले लोग ऋषि कहे जाते थे।  ऋषि शब्द का वर्बल मीनिंग होता है दृष्टा या देखने वाला।  ऐसा इसलिए कहा जाता है क्यूंकि वेद जैसे ग्रंथ(जिन्हें हम आदि ग्रंथ कहते हैं)को लिपिबद्ध करने वाले यही व्यक्ति थे। जब बात लिखने की थी तो दृष्टा क्यों कहा?तो जवाब यह है कि आदि ग्रंथो का निर्माण कभी नहीं हुआ अर्थात वे सृष्टि के आरंभ से ही अस्तित्व में थे,बस देर थी तो उन पर से पर्दा हटाने की।  तो ऋषियों ने अपने ज्ञान,तप और योग बल के द्वारा ग्रंथ के मंत्रों, वेद की ऋचाओं आदि को आत्मिक स्तर पर अनुभ

उपलब्धि!

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तुम्हे लिखते हुए  मेरे कीबोर्ड पर  उग आते हैं फूल स्वतः! तुम्हे सोचते हुए अनायास ही उपलब्ध होता हूं मैं समाधी को! अद्वैत का अन्वेषण  हमें ध्यान में रखकर ही किया गया था! हमारा संयोग बहुत ही अकृत्रीम है! तुम्हे पाना ही मेरा स्वयं को पाना होगा! ~पलकेश (मेरे परमात्मा पर लिखी गई कविता)

जय जवान-जय किसान🇮🇳

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जय उनकी,जो समरों में सो कर, चिर जाग्रत हो गए! जय उनकी,जो यमपाश में बंधकर, भारती को मुक्त बंधन कर गए! जिनके गिरते ही धरा पर, वह हुई ऊंची आकाश भर! जय उनकी, जिनके विरत्व की, थाह वीरता पा ना पाई! जय उनकी,जो हिय-चीर धरा का, धान का है बीज बोते! जो सींचते नित निज लहू से फसलें देश को हैं अन्न देते! जय उनकी, जिनका ही उद्यम  चलता है कल-खानों में भी! उनकी परिश्रमशीलता ही, मिट्टी से है सोना उगाती ! वे जवान,वे किसान, बलिदान की परिभाषा हैं! त्याग की पराकाष्ठा हैं वे ही भारत राष्ट्र की प्रतिष्ठा हैं! जिनसे है गंगा जमुना सतलुज सिंध, जिनसे है हिमाद्री नील दक्कन विंध्य, जिनसे ही कश्मीर कन्याकुमारी, जिनसे ही गुजरात बंग, जिनसे ही है पूर्व की सप्त क्यारी! वे हैं असली जन-गण के अधिनायक! करते हैं भाग्य-विधान! जय जवान-जय किसान! जय हिन्द 🙏🏻🇮🇳 स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाओं के साथ! ~पलकेश सोनी

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीड़नम्!

अभी कुछ ही दिन पहले ईद गई..फेसबुक और कई अन्य सोशल मीडिया प्लेटफोर्म्स पर मैंने त्योहार विशेषों पर पशु पक्षियों के साथ होने वाली हिंसा से संबंधित कई पोस्ट्स देखीं (जिसमें बकरीद और मकर संक्रान्ति/पतंगोत्सव वाली पोस्ट्स विशेष रूप से देखी)! जिनपर दोनों और के चिंटुओं की कमेंट्स भी पढ़ने योग्य थी...!तो भियालोग पहली बात तो गई ईद मीठी ईद थी..और पतंगबाजी में अबी सात महीने हैं तो क्यूं कड़वाहट घोल रेले हो?खैर... जानवरों/पक्षिओं के साथ होने वाली बर्बरता(भले वह धर्म से प्रेरित हो या धंधे से)के ख़िलाफ़ आवाज़ उठना ही चाहिए... पर मेरा यह लेख लिखने का कारण विशेष यह है कि त्यौहार के मूल स्वरूप में परिवर्तन करके उसपर कुतर्क करना कहां तक सही है? मैं ना तो कोई विद्वान पंडित हूं ना कोई महान विचारक...इसलिए मेरे इस लेख को एक पोस्ट समझकर पढ़ें और पढ़ने के बाद अपने स्व-विवेक से निर्णय लें!और एक बात पोस्ट समय निकालकर पूरी ही पढ़ें आधी पढ़ना या तो आपके या मेरे स्वास्थ के लिए हानिकारक होगा!😁 मानव द्वारा जानवरों पर अत्याचार कोई आज की बात नहीं...यह मानवता के विकास(अब विकार) का एक पायदान था।मानव तब पशु से कुछ भिन्न